AML – एक्यूट माइलॉयड ल्यूकेमिया

एक्यूट माइलॉयड ल्यूकेमिया (जिसे एएमएल भी कहा जाता है) किस प्रकार की बीमारी है?

एक्यूट माइलॉयड ल्यूकेमिया (जिसे एएमएल भी कहा जाता है) रक्त और अस्थि मज्जा (बोन मेरो) कोशिकाओं का कैंसर है। यह श्वेत रक्त कोशिकाओं के एक समूह को प्रभावित करता है जिसे मायलोइड कोशिकाएं कहा जाता है।एक्यूटका अर्थ है कि यह तेजी से विकसित और आगे बढ़ता है, और इसके लिए तत्काल उपचार की आवश्यकता होती है।

अलग प्रकार से इसको अगर समझें तो यह कह सकते हैं की रक्त के सभी प्रकार के कैंसर में से यह सबसे तेजी से बढ़ने वाला कैंसर होता है इसलिए इसका तुरंत उपचार करना बोहुत जरुरी होता है।

मेरे मरीज का कैंसर किस स्टेज में है ?

रक्त कैंसर में आम तौर पे स्टेज का महत्व नहीं होता। ज्यादा जरुरी होता है यह जानना की यह कैंसर कितना ख़राब तरीके का है। इसकी जानकारी हमे बोन मेरो की जांच के दौरान भेजे गए साइटोजेनेटिक्स और मॉलिक्यूलर जाँच के आधार पे पता चलती है। मरीज  को कितने सघन इलाज की जरुरत है इसका पता भी हमे इन जांचो के आधार पे ही पता चलता है। मरीज के कैंसर मुक्त होने की कितनी संभावना है यह भी हमे इन्ही जांचों के आधार पे ही पता चलता है।

मेरे मरीज का इलाज किन बातों पर निर्भर करेगा / आगे इलाज की क्या प्रक्रिया रहेगी ?

इलाज का निर्धारण करने में दो बातें सबसे महत्वपूर्ण हैं – 

  • मरीज की उम्र और पहले से मौजूद बीमारियां (अन्य शब्दों में कीमो झेलने की छमता)
  • बीमारी (एएमएल) कितना ख़राब तरीके का है। इसकी जानकारी हमे बोन मेरो की जांच के दौरान भेजे गए साइटोजेनेटिक्स और मॉलिक्यूलर जाँच के आधार पे पता चलती है।
मरीज की उम्र 50 वर्ष से कम है और मरीज की स्थिति सघन कीमो झेलने के लिए उपयुक्त है। मरीज की उम्र 50 से 60 वर्ष के बिच है मरीज की उम्र 60 वर्ष से ज्यादा है और ये मरीज सघन कीमो के लिए उपयुक्त नहीं है।
ऐसे मरीजों को सघन कीमो जिसे की 3 + 7 कीमो के नाम से जाना जाता है – वो दी जाती है।

इनमे से कुछ मरीज जो हाई रिस्क वाले होते है (साइटोजेनेटिक्स और मॉलिक्यूलर जाँच के आधार पे ख़राब बीमारी) उनको बोन मेरो ट्रांसप्लांट की जरुरत होती है क्यूंकि केवल कीमो से उनके ठीक होने की संभावना काफी काम होती है।

किस प्रकार का कीमो देना है यह आपके डॉक्टर मरीज की आम स्थिति देख कर ही करते है। ऐसे मरीजों को सघन/तेज कीमो नहीं दी जाती क्यूंकि इन मरीजों में कीमो से नुकसान ज्यादा और फायदा काम होता है। इन मरीजों को धीमी गति की मंथली कीमो दी जाती है जिससे की बीमारी को कंट्रोल रखने की कोशिस की जाती है। ध्यान रहे की इस प्रकार के कीमो से बीमारी के बिलकुल थीं हो जाने की संभावना ना के बराबर ही होती है। इस प्रकार के इलाज का उद्देश्य बीमारी को कंट्रोल रखने का ही होता है जिससे की मरीज को परेशानियाँ काम हो।

हमारे मरीज को किस प्रकार की कीमो दी जाएगी और बोन मेरो ट्रांसप्लांट की जरुरत है की नहीं उसका पता हमे कब चलेगा?

चुकी आपके मरीज की उम्र 50 वर्ष से कम है और मरीज की स्थिति सघन कीमो झेलने के लिए उपयुक्त है इसलिए हम उन्हें 3 + 7 वाली सघन कीमो देंगे। इसके लिए लगभग 1 महीने तक इनको स्पेशल एएमएल वार्ड में भर्ती रहना पड़ेगा। कीमो के बाद कीमो के प्रभाव से बोन मेरो के उभरने के बाद हम दुबारा से बोन मेरो की जांच कर के देखेंगे की बीमारी सुक्ष्म स्तर पे समाप्त हुई की नहीं। 

आपके मरीज के लिए बोन मेरो ट्रांसप्लांट (अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण ) दो स्थितियों में अनिवार्य हो जाता है –

[1] मरीज अगर हाई रिस्क वाला है (साइटोजेनेटिक्स और मॉलिक्यूलर जाँच के आधार पे ख़राब बीमारी) उनको बोन मेरो ट्रांसप्लांट की जरुरत होती है क्यूंकि केवल कीमो से उनके ठीक होने की संभावना काफी काम होती है।

[2] 3 + 7 वाली सघन कीमो के बाद किये गए बोन मेरो की जांच में बीमारी के अंश बचा हुआ रह जाये। 

इन दो स्थितियों में अगर ट्रांसप्लांट न किया जाए तो मरीज के पूरी तरह से ठीक रहे की संभावना 10-15% से भी कम होती है।

यदि ट्रांसप्लांट की आवस्यकता नहीं हो तो कुल कितने कीमो दिए जायेंगे?

यदि ट्रांसप्लांट की आवस्यकता नहीं हो तो कुल मिला के 4 कीमो साइकल्स दिए जाते हैं। 

पहला साइकिल 3 + 7 वाली सघन कीमो के बाद  तीन और कीमो साइकल्स और दिए जाते हैं जिनको की हाई डोज़ साइटोसार बोलते हैं।

इस प्रकार के इलाज के बाद हमारे मरीज के ठीक हो जाने की कितनी संभावना होती है?

साइटोजेनेटिक्स और मॉलिक्यूलर जाँच के आधार पे एक्यूट माइलॉयड ल्यूकेमिया (जिसे एएमएल भी कहा जाता है) को तीन प्रकार में बाटा जा सकता है।

– कम खराब, मध्यम खराब, ज्यादा ख़राब।

[1] कम खराब की श्रेणी वाले मरीजों के ठीक होने की संभावना 50 % के आस पास रहती है। 

[2] मध्यम खराब की श्रेणी वाले मरीजों के ठीक होने की संभावना 30 % के आस पास रहती है।

[3] ज्यादा ख़राब की श्रेणी वाले मरीजों के ठीक होने की संभावना 10 % के आस पास रहती है – इसलिए इस श्रेणी के मरीजों को ट्रांसप्लांट की जरुरत होती है जिससे की इनके ठीक होने की संभावना 30-40 % तक बढ़ सकती है।

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